[पिछले दिनों "जी टीवी" पर के धारावाहिक "छज्जे छज्जे का प्यार" कि शुरुआत हुई, बस देखते देखते तुकबंदी सी कुछ बना दी है...अब आप लोग भी झेलें..........:)]
बड़े से और बड़े होते शहर
पर सिमटती हुई जमीन
जिस कारण कम होते घर
एक आम कोलोनी के घर.
अतृप्त प्रेमी-प्रेमिका के बाँहों जैसे
एक दूसरे में आलिंगनबद्ध
जिस कारण संकरी से संकरी होती गलियां
जैसे हो गयी हो लखनऊ की भूलभुलैया..
फिर इन घरों के छज्जे '
नए नवेले जोड़ो की तरह
हर दूसरे छज्जे को
स्पर्श करने के लिए बेक़रार
इन्ही छज्जो पे सूखते कपडे
तो सूखती बड़ियाँ और अचार
कभी मर्दों के अर्थशास्त्र की बहस
चाय की चुस्कियों के साथ
तो कभी बीबियों के हाथ की सूखती मेहँदी...
और साथ में शिकायतें और गप्पे हजार..
या फिर बच्चो की हुड -दंग
जो अंततः कभी कभी बन जाता जंग-ए-मैदान !!
पर इन सबके अलावा
कभी कभी इन छज्जो से मिल जाती है
सोलह की छोरी तो अठारह का छोरा
और दो जोड़ी बेक़रार आँखें
किताब या कपड़ो की ओट का सहारा लेकर
पर इस डर में भी दीन-दुनिया से अलग
सिहर जाते है दो शरीर..
पनप उठता है प्यार....
जो दिल से होते हैं बेक़रार..
ऐसा है छज्जे छज्जे का प्यार........
प्यार......
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