जिंदगी की राहें

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Wednesday, December 6, 2023

स्त्री : पुरुष

 


पंखे के नीचे

बिस्तर पर लेटा था पुरुष
पर सपने में तितलियों सी तैरती रही स्त्री
स्कूटर के धुएं से जब
प्रकृति को नष्ट करता रहा पुरुष
तो कमर पकड़े सहचर सी, पीछे बैठी थी स्त्री
यहां तक कि कॉलेज नोट्स से
ज्ञान बटोरने की कोशिश कर रहा था पुरुष
तो किताब के पन्ने से टपकी तस्वीर, मुस्काई स्त्री
कामाग्नि में अंधा
स्त्री-देह जलाता, अपराध करता पुरुष
पर चाहते, न चाहते फिर भी, सहचर बन गई स्त्री
जब बंजर जमीन पर, बुझे मन से
प्रेम तलाश रहा था पुरुष
तब भी दूर हरियाई धरती सी ताक रही थी स्त्री
पुरुष हरसमय ढूंढता रहा स्त्री।
स्त्री मान बढ़ाती कहती रही, तुम सर्वश्रेष्ठ हो पुरूष !
... है न!
- मुकेश





Monday, September 4, 2023

!! चाँद !!

1.
कुछ खूबसूरत चाँद की आँखों में
होती है पनियाई उम्मीदें
जो लहरों को भी
बुला ही लेती है
बेहद पास।...
2.
हर रात का चाँद हु-ब-हु है
तुम्हारे जैसा
वही हुश्न वही गरूर..
और वही दूरी भी ।
3.
थक कर बेचारा चाँद भी
आया मेरे कश्ती में
कह रहा तुम चलाओ चप्पू
मैं खो जाऊं तुम्हारे बस्ती में ...... !!
~मुकेश~



Wednesday, February 22, 2023

ऑफिस टेबल और प्रेम

 


जिंदगी
टेबल पर रखे चश्मे
फोन के उलझे तारों
और सैनिटाइजर भी
साथ ही, डेस्कटॉप के स्क्रीन
पंच, स्टेपलर और
फंसी रह गयी चाभियों में
भागी जा रही।
सोचा था चश्मे से दिखोगी करीब
पर हो चुकी हो बेहद दूर
सुनना चाहता हूँ आवाज
पर उलझते तारों व संचार कनेक्शन ने
वो भी किया दूर
फिर भी चाहतें ऐसी कि
ग्लू स्टिक से चिपका रखा तुम्हारे तस्वीर को
मन के अंधियारे में
ताकि रखूं बेहद पास।
चाभियाँ याद दिला रही
प्रॉब्लम है इग्निशन का
कैसे लौटोगे, ओर आते हुए
दिखी थी लहराती हरियाली भी
जो दिलाती है याद
तुम्हारे अनदेखे चमक का
चलो पी कर बिसलरी जूस या पानी ही
करता हूँ फिर से याद !
पर,
अब भी बार-बार आ रही हिचकी
याद आने का सूचक तो नहीं !
खैर
अपनी किताबों के अंदर की कुछ पंक्तियाँ
आज करके समर्पित
बस इतना ही कहूंगा कि
हाँ, याद आती ही रही हो
बराबर।
(टेबल के वस्तुओं की लिस्ट भी कविता हो सकती है न !)
~मुकेश~



Tuesday, January 24, 2023

प्रेम केमेस्ट्री

 



न्यूटन ने सिर्फ तीन नियम दिए थे
उन दिनों, हम बच्चों के लिए
वही थी आधी फिजिक्स
और एक तुम हो
कितनी तो बात मानता हूँ तुम्हारी
पर, हमारी केमेस्ट्री ठीक ही नहीं होती
जबकि भगवान ने भी तो
मेरी बायोलॉजी में बहने वाली नर्वस सिस्टम को
तुम्हारे अलिंद-निलय से जोड़ा है
हाय मैं क्या करूँ मर जाऊं 😊
~ मुकेश




Friday, August 26, 2022

ज़ख़्म


सहेजा हुआ है, मैंने ज़ख़्म अपना छिले हुए टखने और कोहनी बता रही मेरी गुस्ताखियाँ दिखते हैं उस पर रक्त के धब्बे जैसे गुलाब की सुर्ख़ पंखुड़ियां देह मेरी जैसे मिट्टी-उर्वरक अंकुरित होती रही उस पर कुछ मासूम यादें, हमने उसके माथे पर लगा दिया है काजल का टीका ओस के निर्मल अहसास सी, बलबलाई खून की एक बूँद मेरे ही सूखे घाव पर ओह, सुवासित हो गयी पीड़ा भी अपने दर्द में अपनी गरम फूंक से दे रहा सांत्वना कि वो याद करती होगी न पक्का-पक्का क्यारियों में बेशक न खिल पाये गुलाब आखिर कौन सींचे हर दिन, हर पल पर, तुम्हारा दिया ज़ख़्म तो स्मृतियों में रिसता रहेगा ताउम्र वैसे भी, कुरेदे हुए घाव दिख जाते हैं सुर्ख लाल किसी ने कहा भी, कैक्टस के फूल खिलखिलाते हैं रेगिस्तान में आखिर कुछ टीस जिगर में ख़ुश्बू जो भरती है जिंदगी तुम बस दर्द देती रहना बेइंतहा ! माय लॉर्ड दर्द, जिन्दा रहना और जख्म को सहेजे रखना, जिन्दादिली का सबूत है न ! ~मुकेश~



Thursday, August 18, 2022

लिपस्टिक


 

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आलमीरा में चिपके आईने पर
चिपकती हुई युवती
या यूं कहूँ कि अर्द्ध चंद्राकार मुड़कर
नशीले नजरों से निहारते हुए
चला रही थी उँगलियाँ
और बस गुलाबीपन
पसरता जा रहा था होंठो पर
जो गुलाबी होंठ को कर रहा था
सुर्ख गुलाब की पंखुड़ियों सा
थी शायद कुछ ऐसी जल्दी
जैसे एक व्यक्ति ने कुछ
लगातार पोस्ट डेटेड चेक पर करते हुए हस्ताक्षर
ली हो जम्हाई
और फिर से उंगली घुमाई
बेशक फलो गड़बड़ाया
पर फिर भी सिग्नेचर उग आई चेक के पत्ती पर
हाँ होंठ के बाएँ कोने से ज्यादा ही छितरी लग रही थी
पर कोई ना, होता है
एक्वेरियम में
फडफड़ाती लाल मच्छलियों सी
दर्द के बावजूद चमकती छमकती सी
दृढ़ निश्चय की लाली सहेजे
हर गुजरने वाले को
करती है आकर्षित
उद्दाम आकर्षण
और रंग का प्रतिफल
जा चुकी स्त्री के द्वारा छोड़ा हुआ ग्लास
कुछ बची रह जाती है कॉफी
और ग्लास के कोने पर रह जाते हैं
मासूम गुलाबी एहसास
जैसे सिल्ड वसीयत पर लगा हो सरकारी ठप्पा
वो आई ही थी ' का कन्फ़र्मशन
एनिवे
जिंदगी का गुलाबी होना जरूरी है न
तो, गुलों से कह दो फूल खिलखिला रहे ।
~मुकेश~



Wednesday, April 6, 2022

हुकूमत



रात
नींद
सपने
बिस्तर
देह
और आराम
फिर
इन सबका घाल मेल
और इनके बीच
घुसपैठ करती तुम
ऐसे कोई कहता है क्या कि
मुझ पर कविता लिखना
हर जगह तो दिखाती हो हुकूमत
रात की चंदा
नींद के सपने
सपने की नायिका
बिस्तर की सिलवटें
देह की सिहरन
और, और आराम की खूबसूरत खलल बनकर
क्यों पहुंचती हो इस हद तक
कि कविता पहुंचें
हदों के पार
खैर, मानोगी थोड़ी
नींद के साथ, नींद से पहले भी
आया ही करोगी तुम
वजह बेवजह।
आती रहना !
... है न!
~मुकेश~